दिनांक-२९/०५/२०२५
सरस्वती विद्या मन्दिर वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय ज्ञान कुंज विवेकानन्द नगर सुलतानपुर के प्रांगण में चल रहे प्रान्तीय प्रधानाचार्य प्रशिक्षण वर्ग के चौथे दिन प्रथम सत्र में प्रधानाचार्य बन्धुओं का मार्गदर्शन डा० राम मनोहर जी ,क्षेत्रीय सह संगठन मंत्री( विद्या भारती पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र के द्वारा किया गया। उन्होंने शिक्षा के वैश्विक परिदृश्य एवं युगानुकूल परिवर्तन विषय पर बोलते हुए कहा कि आज से सौ वर्ष पूर्व शिक्षा प्रदान करने वाले संसाधन आज की तुलना में बहुत ही कम थे। वर्तमान में अनगिनत विश्वविद्यालय, कालेज, भूमि, भवन, आचार्य और छात्र हैं, किन्तु शिक्षा के मूल उद्देश्य को पाने में असफल सिद्ध हो रहे हैं। सृष्टि की 4 अवस्थाएं हैं। पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञान।
मानव जीवन ज्ञान की अवस्था है पदार्थ, प्राण और जीव का आचरण निश्चित है।
इसी प्रकार भाव और विचार को परिभाषित करते हुए आदरणीय सह क्षेत्रीय संगठन मंत्री डा० राम मनोहर जी ने कहा कि भव की स्वीकृति ही भाव है। किसी वस्तु या व्यक्ति की जितने परिमाण में जितने प्रतिशत स्वीकृति है , वही भाव है। इस जीवन में स्वीकृति सुख और अस्वीकृति ही दु:ख का पर्याय है। जिस कार्य में विश्वास उसमें स्वीकृति, किन्तु जिसमें अविश्वास है उसमें अस्वीकृति है। जैसे चूहे ने काट लिया और तुरंत बाद में उसी स्थान पर विषैला सांप दिखाई पडे़गा तो मृत्यु संभव है। किन्तु विषधर सर्प के काटने के पश्चात् तत्काल उसी स्थान पर चूहा दिखाई दे तो मनुष्य के प्राण बच जाते हैं।
शास्त्रों में कहा भी गया है कि *”संशयात्मा हि विनश्यति”*।
*विचार*- कार्य करते समय जो मस्तिष्क पटल पर चलता रहता है। क्षण भर में ही आकर प्रभावित करके चला जाता है। यही क्रम निरन्तर जारी रहता है। वह विचार है।
अतः हर क्षण सजग, तटस्थ और संयम से रहना चाहिए। जो शिक्षा से संभव है। इसलिए शिक्षा मानव के आचरण की निश्चितता के लिए है।
संसार में सत्य, अहिंसा, परोपकार, दया, दान, करुणा, अपरिग्रह आदि अनेक अच्छाईयां हैं, जिनमें से किसी एक की भी परिभाषा बता पाना हमारे लिए संभव नहीं है। किसी भी अच्छाई की निश्चितता के लिए शिक्षा आवश्यक है।
हम भावनाओं पर ध्यान दें, यही भावनाएं हमारे विचार बन जाती हैं, विचारों पर ध्यान दें, वही शब्द बन जाएंगे। शब्दों पर ध्यान दें, वही हमारा चरित्र बनेंगे। हम अपने चरित्र पर ध्यान दें तो वह हमारी नियति बनेंगे।
शिक्षा हमें संस्कार, ज्ञान, अनुशासन, चरित्र, विवेक, बुद्धि, सम्मान, संवेदनशीलता, करुणा, त्याग, समर्पण आदि सद्गुणों को प्रदान कर सम्बन्धों में जीने की कला सिखाती है।
आज से सौ वर्ष पूर्व की अपेक्षा आज शिक्षा के संसाधनों और शिक्षार्थियों की संख्या में जिस तरह कई गुना अधिक वृद्धि हुई है, उसी अनुपात में अच्छाइयों में भी वृद्धि होनी चाहिये थी। किन्तु पहले की अपेक्षा अच्छाइयों का अन्तर घटा है। आज दुनियाँ में हर स्तर पर शिकायतें हैं। सुविधाएं बढी हैं किन्तु, सम्बन्धों में घटोत्तरी हुई है।
आज साधन सम्पन्न (अमीर)और साधन हीन(गरीब) दोनों दुखी हैं, एक दूसरे का जीवन हमें प्रभावित करने लगा है। क्योंकि दूसरों की अयोग्यता से प्रभावित होना ही मेरी अयोग्यता है। ऐसा हम मानने लगे हैं।
हमारे भीतर बुराईयों के यज्ञ कुण्ड बने हुए हैं। जिसमें पहले ही एक एक बुराई असंख्य बार संचित होती रही है। और यदि उसमें एक भी आहुति पड़ जाती है तो वह हमें हजार गुना प्रभावित करती है।
इनसे बचने का एक मात्र उपाय जागृत पथ है। यदि हम होश में रहते हैं,और गलत विचार आते ही सजग हो जाते है तो हम जागृत पथ पर हैं । *जागृत पथ पर पैर रखते ही ताप, शाप और शोक से मुक्ति मिल जाती है।*
इसीलिये हम कहते हैं कि-
*”सा विद्या या विमुक्तये”*
आज मनुष्य को अपनी भावनाओं और विचारों पर विश्वास नहीं है,बल्कि अन्य चीजों पर विश्वास है। अतः समझ विकसित नहीं हो पाएगी। और यदि समझ विकसित नहीं हुई तो जीवन में ईमानदारी कभी नहीं आएगी।ईमानदारी न होने पर किसी भी चीज़ की जिम्मेदारी भी नहीं आएगी।
यदि आचरण , व्यवहार, कर्तृत्व, व्यक्तित्व से समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी नहीं आएगी तो समाज में भागीदारी भी कभी नहीं आएगी।
आज शिक्षा का मानवीकरण न होकर व्यवसायीकरण हो गया है। बालक शैशवावस्था से लेकर पचीस वर्ष की अवस्था तक शिक्षा लेकर केवल डिग्री, पैसा और स्किल ही लेकर निकलता है। वह इतने वर्षों में केवल धन , स्त्री पुरुष सम्बन्ध और समृद्धि ही समझ पाता है, उसमें ही उसे सुख दिखाई देता है जो अराजकता और अशान्ति को ही बढाते हैं।अतः पवित्र से पवित्र रिश्ता भी सुविधाओं को ही जीवन मानता है। *इस मानसिकता को शिक्षा का मानवीकरण करके हम सबको बदलना होगा,* जिससे हर किसी को यह लगने लगे कि अपनी पत्नी के अतिरिक्त सभी नारियां मेरी माता या बहनें हैं।
इसी फर्क का नाम आचार्यत्व, मानवत्व है। और यही हमें देवत्व तथा ईश्वरत्व की ओर ले जाएगा। जो शिक्षा के मानवीकरण से ही संभव है।



