Breaking दतिया

आखिरकार मिल गया बुंदेलखंड के वीर योद्धा आल्हा ऊदल का वास्तविक किला

बुंदेलखंड के पराक्रमी योद्धा आल्हा -ऊदल की गाथाएं हर किसी ने सुनी है, आल्हा -उदल का संबंध महोबा से रहा है और वे चंदेल राजा परिमाल के सफल सेनापति दसराज के बेटे थे,वे बनाफर वंश के थे जो की चंद्रवंशी क्षत्रिय वंश है, मध्यकाल में आल्हा ऊदल की गाथा क्षत्रिय शौर्य का प्रतीक दर्शाती है ,पंडित ललित प्रसाद मिश्र ने अपने ग्रंथ आल्हाखंड की भूमिका में आल्हा को युधिष्ठिर और उदल को भीम का साक्षात अवतार बताते हुए लिखा है कि ,यह दोनों भी अवतारी होने के कारण अतुल पराक्रमी थे, आल्हा -उदल का किला कहां है इसे लेकर अलग-अलग कहानी आपने देखी और सुनी होगी, लेकिन बुन्देली दर्पण की टीम निकल पड़ी  आल्हा ऊदल के वास्तविक अजेय किले की तलाश करने और खोज के बाद आखिरकार हम पहुंच गए बुंदेलखंड के वीर योद्धा आल्हा ऊदल के उस किले पर जो विशाल है,भव्य है, और जहां आल्हा ऊदल से जुड़े अवशेष भी बताए जाते हैं ,

छतरपुर जिले से लगभग 110 किलोमीटर दूर गौरिहार तहसील अंतर्गत किशनपुर गांव में स्थित है आल्हा उदल का किला , जो एक टापू नुमा स्थान पर स्थित है,इसके  चारों ओर तालाब थे जिसकी वजह से सुरक्षा की दृष्टि से यह किला और भी अभेद था, तालाबों में आज भी कुएं -बावड़ी तक पहुंचने के गुप्त मार्ग देखे जा सकते हैं ,किले के चारों ओर विशाल परकोटा उसकी सुरक्षा को और मजबूत बनाता है,किले के लगभग हर हिस्से में गुप्त द्वार हैं ,यहां के जानकार बतलाते हैं कि एक गुप्त मार्ग (सुरंग) केन नदी के टापू पर स्थित रनगढ़ के दुर्ग तक गया हुआ हैं तथा एक गुप्त मार्ग जुझार नगर जो अब बारीगढ़ के नाम से भी जाना जाता है वहां तक गया हैं, बताया जाता है की आल्हा ऊदल के पिता दशराज यहां निवास किया करते थे,किवदन्ती यह भी है की आल्हा उदल का जन्म भी यही हुआ था, जानकार बताते हैं कि किले के एक हिस्से में बने कमरे में आल्हा की छठी दीवार पर अंकित थी ,जिसमें साफ तौर पर आल्हा की छठी लिखा, गेरुए रंग का शिलालेख मौजूद था, लेकिन दफीना खोदने वालों ने उस स्थान को भी खुर्द बुर्द कर दिया ,यह विशाल किला संरक्षण के अभाव में जर्जर और खंडहर हो चुका है, वही दफीना खोदने वालों की भी इस पर नजर रही और किले के लगभग हर अलग-अलग हिस्से में दफीना के चक्कर में लोगों ने खुदाई भी की है, जिसकी वजह से यह किला और भी जर्जर हो चुका है ,कहा यह भी जाता है की आल्हा ऊदल यहां निवास किया करते थे और रियासत पर निगरानी रखा करते थे, इसे पहले दशपुरवा के किले के नाम से जाना जाता था, आसपास घना जंगल होने की वजह से शिकार के लिए भी यह जगह आल्हा उदल को अति प्रिय थी, किले से कुछ किलोमीटर की दूरी पर आल्हम देवी माता का शक्तिपीठ है ,यहां आल्हा ऊदल पहुंचे थे और उन्होंने देवी मां की आराधना की थी आल्हा देवी मां के परम उपासक थे और जब उन्होंने यहां पर साधना की तो देवी मां ने प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिए थे, उसके बाद इस स्थान में मंदिर बना और यहां का नाम आल्हा मां के नाम से विख्यात हुआ, जो कालांतर में अपभ्रंश होकर आल्हम देवी के नाम से आज भी जाना जाता है, गूगल मैप में भी जब गौरिहार के किशनपुर गांव को सर्च करते हैं तो यहां आल्हा ऊदल का किला अंकित दिखाई देता है ,चंदेल शासन काल के बाद यह किला बुंदेला राजाओं के अधीन हो गया और अजयगढ़ महाराज ने राजधर ब्राह्मण को गौरिहार रियासत घोषित  कर 21 गांव का राजा बनाया जिसमें यह किला भी शामिल था, उन्हें सिंह की उपाधि दी गई, और इसके बाद से यह किला राजधर महाराज और उनके वंशजों के अधीन रहा ,उन्हीं के वंशज राजा प्रतिपाल सिंह यहां रहते थे उनके द्वारा इस किले  में तमाम पुनर्निर्माण भी कराए गए, और उनके बाद ना ही कोई इस किले में रहा और ना ही यहां का संरक्षण हुआ, जिसके बाद  आज यह किला लगभग खंडहर हो चुका है। जो अवशेष हैं वह इसकी भव्यता और विशालता की कहानी जरूर बयान करते हैं ,लेकिन आने वाले समय में आल्हा ऊदल का यह किला सिर्फ कहानियों में ही जाना जाएगा, गौरिहार के निवासी और इतिहास के जानकार शिक्षक ब्रजकिशोर पाठक बतलाते हैं कि पर्यटन विभाग को कई बार लिखा गया और इस किले को संरक्षित करवाने के प्रयास भी किए गए, पर्यटन और पुरातत्व विभाग की टीम भी आयी, लेकिन उन्होंने पर्यटन व आय की दृष्टि से इसे उचित नहीं माना, टीम का कहना था कि शासन के करोड़ों रुपए फंस जाएंगे और मनी रिफंड नहीं होगी क्योंकि यहां पर पर्यटन की संभावनाएं ही नहीं है

 

sangam